"दरख़ास्त"
............सुनो ज़रा बात करनी थी,
एक छोटी सी दरख़ास्त करनी थी
"दरख़ास्त"
मैं जानता था, रुकोगे तुम,
ईश्क न है, ये कहकर भी,
मेरी बात पूरी सुनोगे तुम,
"अब कैसे बताऊं, कुछ नहीं है कहने को,
मेरी सांसें तो ये चलती हैं मगर,
रगों में खून नहीं है बहने को"
कैसे हाल ए दिल सुना दूं मैं
अपने ज़ख्मों को छिपा लूं मैं
अब तक यही सोच रहा हूं
कैसे बात जबां से निकालूं मैं
क्या नहीं पढ़ सकते आंखे मेरी
या, पढ़ना चाहते नहीं हो,
ईश्क तो है तुम्हें अब भी मुझसे
बशर्ते तुम जताते नहीं हो
अब शायद तुम मिलो, न मिलो
इन गलियों में दोबारा फिर, दिखो न दिखाे
मेरी लबों पे बात तुम्हारी होगी अक्सर
तुम कोई खत मुझे, लिखो न लिखो
हां, तुम्हारे बगैर,
जी तो मैं लूंगा ख़ैर
सांसें तो ये चलेंगी मगर
तुझ बिन हमेशा लगेंगी ज़हर
चाहता हूं तुम्हें रोक लूं मगर
तुम तो कब के जा चुके हो
मेरी आंखो में हर पल भी रहकर
जाने कब का मुझे भुला चुके हो
बस अब ज्यादा नहीं कुछ कहूंगा मैं
न फिर से इश्क में अब बहूंगा मैं
दो चार और ज़ख्म दे दो अगर तो
चुप चाप ज़ख्म सारे सहूंगा मैं
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