शाम और महफ़िल



इस साल कोई अच्छी कविता या शायरी तो नहीं है मगर, कुछ अल्फ़ाज़ हैं जो प्रस्तुत कर रहा हूं, ये पढ़ने में शायद आनंद न आए मगर सुनने में शायद अच्छा लगे।।


 शामें थी ओ महफ़िल थी क्या हसीं नज़ारा था

के जिल्लत हो या इज़्ज़त हो हमें कुछ नगवारा था

शब ए जन्नत मिली थी, साथ बीती रात जो अपनी

कोई फिर शाम हो या रात, तन्हा ही गुज़ारा था


क्या सोचा था जो उनसे मोहोब्बत कर बैठा

न मिली वो होती, न टूटे हम होते

न इज़हार करा होता, न तन्हा हम रोते


तेरी खुशबू का दरिया हो, तेरी सांसों का जरिया हो


तेरी खुशबू है की इत्र फिज़ा में कोई

ये मौसम नया सा है इस जहां में कोई,


कोई रुत हो मोहोब्बत की, तेरी वो तंग गलियां हो

तेरा ही नाम हो और जाम हो, महज़ बातें नहीं लेकिन

खुशबू हो तेरे तन की, गुलाबों की वो कलियां हो


और हवा मोहोब्बत की चले तो सांसें थाम लेना

कहीं फिज़ा ए इश्क में बीमार न पर जाओ 


आप पूछते हैं, रूठते हैं, रंग बदलते हैं

मेरा कुछ नाम नहीं, काम नहीं, बस तन्हा चलते हैं


मैं सोचता था कि गलती दोबारा नहीं होती

मैंने एक शख्स से ही मोहोब्बत कई बार किया 

वो जो जाम ए इश्क पिलाया था उनने एक दफा

न फिर कभी किसी पे हमने एतबार किया



मेरी महफ़िल में मोहोब्बत के सिवा खौफ दिखता है

यहां न शान है न शर्म है, हर ज़ख्म बिकता है

तुम तो कहते हो की, शायरों में है अदब कोई

जाने नापाक इरादों में क्यों हर लफ्ज़ दिखता है



मैं तो शायर हूं, कभी लफ्ज़ कभी हर्फ लिखता हूं

गुमशुदा हूं मगर राहों पे अक्सर ही दिखता हूं 

मेरे अंदाज़ में है इश्क ओ तलब, हाल ए दिल बयां

जाने हर मोड़ पे क्यों मैं ही सर ए राह बिकता हूं

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